देशभक्ति और नागरिक बोध

डॉ. अजय खेमरिया‘हमें आजादी के आंदोलन में संघर्ष या शहादत का अवसर नहीं मिला इसमें हमारा कोई दोष नहीं है, लेकिन हमें भारत के लिए जीने का अवसर आज उपलब्ध है,’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर यह कहते हैं। इसके पीछे मूल वजह पिछले सात दशकों में लोकजीवन के वे नैराश्य भरे अनुभव हैं जो देशवासियों के नागरिक बोध पर सवालिया निशान खड़ा करते रहे हैं। हमने गणतंत्रीय और संप्रभु राजव्यवस्था को अपनाया, लेकिन इसके लिए मूल संविधान में नागरिक उत्तरदायित्व के प्रावधान नहीं किए। वर्ष 1976 में 42वें संविधान संशोधन अनुच्छेद 51 (क) जोड़कर पहले 10 और अब 11 मूल कर्तव्यों का समावेश किया गया। भारत के लोकजीवन में नागरिकों के अधिकारों को लेकर बहस होती रहती है। पिछले कुछ वर्षो में अभिव्यक्ति की आजादी और इससे संबंधित अधिकारों को लेकर एक वर्ग द्वारा ऐसा माहौल निर्मित किया जाता रहा है मानो राजव्यवस्था नागरिक अधिकारों को कुचलने में लगी है।


क्या कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था बगैर नागरिक बोध के सफल हो सकती है? क्या सिर्फ राज्य प्रायोजित अनुदान और सुविधाओं के उपभोग से कोई राज्य लोक कल्याणकारी ध्येय को प्राप्त कर सकता है? वर्ष 1950 से भारतीय लोकजीवन का सिंहावलोकन हमें इस चिंतन की ओर उन्मुख करता है कि क्या भविष्य का भारत अपने नागरिकों की कर्तव्य विमुखता की नींव पर खड़ा होकर उस वैश्विक स्थिति को हासिल कर पाएगा जिसकी कल्पना संविधान बनाने वाले पूर्वजों ने की थी।हमारी गैर जवाबदेह लोक चेतना को जापान के एक उदाहरण से समझा जा सकता है। कुछ वर्ष पूर्व एक भारतीय शिक्षक जापान यात्र पर थे। वहां उन्होंने देखा कि टोकियो में एक बुजुर्ग ट्रेन की सीट के फटे हुए हिस्से की सिलाई कर रहे हैं। भारतीय शिक्षक ने जब इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वह एक रिटायर्ड शिक्षक हैं और यह सोचकर सीट की सिलाई कर रहे हैं कि कोई विदेशी अगर इस ट्रेन में सफर करेगा तो उसके मन में जापान की क्या छवि बनेगी? अंदाजा लगा सकते हैं कि जापानी चरित्र में किस उच्च कोटि की राष्ट्रीयता का तत्व विद्यमान है। इसके उलट आइआरसीटीसी की एक रिपोर्ट कहती है कि 2018 में हमारी ट्रेनों से 1.95 लाख तौलिया, 81,736 बेड शीट, 55 हजार तकिया कवर, सात हजार कंबल आदि गायब हो गए। भारतीय रेल भी हमारी राष्ट्रीय संपत्ति है। संविधान का मूल कर्तव्य संख्या नौ कहता है कि ‘हम सभी को अपने राष्ट्रीय स्मारक और संपत्ति की सुरक्षा करनी चाहिए।’ जापानी नागरिक बोध को दुनिया में सबसे ऊंचे स्थान पर रखा जा सकता है। वह ऐसे नागरिकों का राष्ट्र है जो द्वितीय विश्व युद्ध की बर्बादी के बाद आज तकनीकी और राष्ट्रीय उत्पादन के मामले में अव्वल बन चुका है।


बेशक भारत ने सात दशकों में हर क्षेत्र में प्रगति की है, लेकिन उपलब्ध मानव और प्राकृतिक संपदा की तुलना में यह अन्य देशों से काफी कम है। इसका कारण हमारे चेतन में राष्ट्रीयता के प्रधान तत्व की कमी है। हम अटारी वाघा बॉर्डर पर जब परेड देखते हैं तो देशभक्ति के उन्मादी ज्वार में डूब जाते हैं। वहां से लौटते हैं तो ढेर सारा कचरा ट्रेन में अपनी सीट के नीचे छोड़ आते हैं। ऐसे बीसियों उदाहरण हंै जिनसे यह प्रमाणित होता है कि हमारी चेतना में राष्ट्रीय दायित्व बोध आज भी स्थाई भाव नहीं बना सका है।